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चार्वाक
चार्वाक जिन्हे बृहस्पति भी कहा गया है उनकी उत्पत्ति प्रमुख रूप से उत्तर-वैदिक काल में मानी जाती है । इनका प्रमुख ग्रन्थ बृहस्पति सूत्र (6०० ईसा पूर्व ) आज के समय में उपलब्ध नहीं है पर अलग अलग ईश्वरी पंथो में इस के अंश मिलते है जिससे पता चलता है यह अपने समय के प्रमुख दर्शनों में एक था और इसका प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में था।
चार्वाक दर्शन की उत्पत्ति व दर्शन बाकी सभी दर्शनों से अलग है । चार्वाक दर्शन द्वैत, अद्वैत दर्शन से अलग, विरोधी दर्शन है । इसकी उत्पत्ति वैदिक कर्मकांडो और रीति रिवाजो के विरोध में हुई । आम तौर पर इन्हे भौतिकवादी माना जाता है । इनके लिए आम तौर पर कहा जाता है: "जब तक जियो सुख से जियो, उधार लो और घी पियो " । बौद्ध ग्रंथो के अनुसार ये वो प्रणाली है जो इस लोक में विश्वास करती है व स्वर्ग नर्क व मुक्ति की अवधारणा का विरोध करती है ।
यह दर्शन मानता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु, इन चार भूतो के संयोग विशेष से चेतना उत्पन्न होती है और इन के विनाश से "मै" अर्थात चेतना का भी विनाश हो जाता है । ये आत्मा को पृथक पदार्थ नहीं मानते; ईश्वर परलोक आदि विषय इनके हिसाब से अनुमान के आधार पर है । ये प्रत्यक्ष को छोड़ कर अनुमान को प्रमाण नहीं मानते । उनका मानना था कि जो वस्तु अनुभव-गम्य होती है उसके लिए अन्य प्रमाण की जरुरत नहीं; इन्द्रियों के अनुभव से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान है। अन्य दर्शन अनुमान को भी ज्ञान मानते है । इन्होने बलि, मांस भक्षण इत्यादि की भी कड़ी निंदा की व इसे लज्जास्पद कहा । इन्होने सिर्फ वेदों का ही खंडन नहीं किया बल्कि अद्वैत सिद्धांतो जैसे जीवन चक्र, पूर्वज पूजन व अन्य ईश्वरी आस्थाओ का भी खंडन किआ । उन्होंने स्वर्ग और नर्क को इसी जीवन का हिस्सा बताया। उन्होंने शरीर को ही आत्मा कहा,व पुनर्जन्म को एक परिकल्पना बताया।
चाणक्य और बड़ी राज्य व्यवस्था का आगमन
पुरानी राज्य व्यवस्था के विपरीत राजाओ की शक्ति बढ़ाने लगी थी। नए नए विचारो के आगमन से आश्रम व्यवस्था छोटे छोटे राज्यों में बँट गई थी। ऐसे में चाणक्य नाम का एक ब्राह्मण एक नई राजनीतिक व्यवस्था ले कर आया । एक तरुण चन्द्रगुप्त के माध्यम से उसने एक वृहत शासन प्रणाली की नींव रखी। उस राज्य व्यवस्था में अलग अलग दर्शनों के लोगो के लिए अलग अलग न्यायिक व्यवस्था अपनाई गई जिस से पहली बार सभी के दर्शनों के साथ एक बड़े राज्य की स्थापना करना भारतीय उपमहाद्वीप में संभव हो सका; उदहारण के लिए पति पत्नी के विवाह व सम्बन्ध विच्छेद के लिए 8 अलग अलग कानूनों की व्याख्या बताई गई है जिसमें से 4 को मौर्य साम्राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थी। बाकि को गैर क़ानूनी माना गया है । व्यक्तिगत कानून ही अलग अलग दर्शन के लोगो पर अलग अलग लागू थे। बाकि व्यापारिक व सामाजिक अपराध को ले कर बने कानून सभी पर समान रूप से लागू थे जो राजा के दर्शन को बताते थे।
ये भारतीय वैचारिक दर्शनों में एक बड़े बदलाव का दौर था यहाँ पहली बार राजा आश्रम के संरक्षण में नहीं था बल्कि अब आश्रम राजा के अधीन हो गया था । यही व व्यवस्था थी जिस ने आगे चल कर मौर्य साम्राज्य को एक बहुत बड़े साम्राज्य के स्थापित होने में मदद की । यह घटना एक बड़े राष्ट्र का भारतीय उपमहाद्वीप पर उदय था।
उत्तर वैदिक काल के अंत व बौद्ध धर्म तक सामाजिक स्थिति
नए बड़े राष्ट्रों में दर्शन बस एक चीजों को देखना का तरीका रह गया था । कोई भी व्यक्ति कोई भी दर्शन अपना सकता था । नई व्यवस्था बहुत क्रांतिकारी सिद्ध हुई। भारतीय उपमहाद्वीप में ही नहीं मध्य एशिया तक मौर्य साम्राज्य के एक राजा अशोक ने एक शक्तिशाली समाज की नीव रखी। उस ने बाद में बौद्ध धर्म अपनाया व बुद्धिस्ट अर्थव्यस्था सम्पूर्ण भारत में लागू कर दी। इस समय एक ओर कला और व्यापार ने बहुत तरक्की की । दूसरी ओर बाकि दर्शन का बहुत विनाश हुआ जिससे पुरानी वर्ण व्यवस्था का अंत हुआ । वही समाज आर्थिक उन्नति की चरम में था । यहाँ जो मौर्य वयस्था लागू की गई वो अन्य पौराणिक व्यवस्था से अलग थी । उस काल के राज्यादेशों से स्पष्ट होता है कि साम्राज्य को समरूप इकाई नहीं माना जाता था और विविध प्रकार के जनसमाजो की यथास्थिति स्वीकार्य थी । स्थानीय राजा को ही कर इक्कठा कर प्रशासन को जमा करना होता था। ये एक तरह का समझौता था जिस से एक धमकी भी जुडी थी की जरुरत पड़ने राज्य सख्ती से भी काम ले सकता है।
अशोक के काल का जो ब्यौरा मैजूद है उस के अनुसार कारीगरों की अपनी कार्यशालाए थी व माल की कीमत कारीगर व कार्यशालाओं के नाम से भी तय की जाती थी। यानि कारीगर की कार्य कुशलता व कारीगरी के आधार पर काम की कीमत तय होती थी ।कई कारीगर घराने विकसित हो चुके थे जिनका सामान गाड़ियों व नौकाओं के जरिए सुदूर देशो में बिक्री के लिए जाता था। नए नए नगर बसाए गए व ग्रामीण अर्थव्यस्था भी मजबूत हुई।
प्रशासनिक, सैनिक, कारीगरों आदि कर्मचारियों का वेतन तय था; सेनापति को 48000 पण, कोषाध्यक्ष को 24000 पण, लेखाकारों, लिपिकों और सिपाहीओं को 500 पण, मंत्रीओ को 12000 पण व कारीगरों को 120 पण मिलता था। यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि कितने समय के अंतराल पर वेतन दिया जाता था पर बैलो के जोड़े की कीमत 24 पण थी। पण का मूल्य न जानते हुए भी हम जान सकते है कि नौकरशाही व ऊपरी स्तर के लोगो को असाधारण रूप से अच्छे वतन दिए जाते थे।
बढ़िया आलेख
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