Painting by Henry Ambrose Oldfield, 1853 |
एकेश्वरवाद (शैविक) दर्शन
भारतीय इतिहास और हिन्दू संस्कृति पर शैविकों का
बहुत अधिक प्रभाव रहा है। ये विचार अलग अलग आश्रमों की अलग अलग व्याख्या के माध्यम
से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर मौजूद थे। हर आश्रम अलग अपनी संस्कृति व मान्यताओं के
साथ दर्शन के आधार पर आपस में जुड़ा हुआ था। शैविक ईश्वरी मत भारतीय इतिहास के सब
से प्राचीन ईश्वरी मतों में से एक है । अन्य देवी पूजकों ने भी इन्हे पितृ रूप में
स्वीकार किया जिन की वजह से 112 शैविक आश्रम व जीवन शैलियों की उत्पत्ति हुई। इनमें से 52 सत्ताधारी
देवियों या पार्वती के 52 रूपों के तौर पर पूजी जाती हैं। देवी पूजक शाक्त कहलाए। ये सभी देवी व शिव रूप में दर्शन के आधार पर एकजुट थे व कुलदेवी व कुल
देवता के तौर पर अलग अलग समुदाय द्वारा पूजे जाते थे। एक दर्शन होने के बावजूद ये स्थानीय
राजनितिक व भौगालिक स्तिथि से काफी प्रभावित रहे जिस की वजह से सांस्कृतिक ,
न्यायिक व आर्थिक विविधता बनी रही । उत्तरी-पश्चिमी ,उत्तरी-पूर्वी
व दक्षिणी शैविक साहित्य में ये अंतर देखने को मिलता है। शैविक का ज्यादतर साहित्य
दक्षिण में ह्यमंस (HYMNS) तमिल साहित्य से[1], कश्मीर और शिवालिक से अभिनव गुप्त[2]
और बंगाल और असम से काली[3]
और अन्य साहित्य उपलब्ध है। उन का उल्लेख हमें वैष्णव, बुद्धिस्ट व जैन धर्म के साहित्य में भी मिलता है जिन में शिव को अलग अलग
ईशवरी मतों ने विचार के रूप में स्वीकार किया । हिन्दू संस्कृति में सबसे बड़े
अद्वैत देवता के रूप में शिव प्रचलित है व मोहनजोदड़ों में भी प्रतीक चिह्नों के
तौर पर पशुपति रूप में दिखते हैं।
शैविक धार्मिक मत का मूल सिद्धांत समानता है - ये चिह्नों व कहानियों के
माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि को शिव के तौर पर
देखते हैं। इस को समझने की लिए कन्या कुमारी की कहानी काफी प्रचलित है जिसमें शिव
के जन्म की कथा को बताया गया है।
ओमकारा (शिव का पहला नाम ) - अग्नि से एक ध्वनि उत्पन्न हुई (ॐ) जब उस ध्वनि ने खुद को रूप दिए तो शिव था " स्वयंशंभु "(शिव का दूसरा नाम)
जब शिव ने रूप लिया तो वहा दो तरह की शक्तिया थी जो एक मूल होते हुए भी एक
दूसरे के विपरीत थी और एक दूसरे से टकरा रही थी "अर्धनारीश्वर" (शिव का
तीसरा नाम) और इस टकराव से सृजन हो रहा था "शिवलिंग" सृजन का प्रतीक चिह्न।
शुरुआती दौर में शैविक ईश्वरी मत को तीन हिस्सों में बाँट कर देखना जरूरी है,
दर्शन व सांस्कृतिक तौर पर ये एक दर्शन में जरूर विश्वास
करते थे परन्तु स्थानीय भूगोलिक व राजनैतिक गठबंधनों का प्रभाव इन में निरन्तर रहता
जो की अभिनव गुप्त के कश्मरी शेविकिसम को व बंगाल के काली लिटरेचर और दक्षिण के
तमिल ह्यम से अलग करता है।
हमें इतिहास में अलग अलग भारतीय ईश्वरी मतों के साहित्य में इस के प्रमाण
मिलते है। उदाहरण के तौर पर राम रावण युद्ध शैविक मत वालों व वैदिक गोत्र घटबन्धन
वालो के बीच संघर्ष दिखाता है। बौद्ध धर्म में भी सिद्धरामा पुण्डरीका सूत्रा व
जैनिओ में ऋषभ अवतार में शिव साहित्य मिलता है जो कि दक्षिण के शैविकइस्म से ज्यादा मिलता है।
शैव परंपरा के अनुसार शिव सबसे बड़ा अद्वैत ईश्वर कहलाता है जो कि अन्य अद्वैत ईश्वरों की तरह कभी नहीं कहता कि मेरी पूजा करो न ही शिव की पूजा करने का कोई विधि विधान ही है । जो बताता है
शिव इक स्मिरीति चिन्ह के रूप में चिन्हित किया जाता था; शिव की भक्ति परंपरा बहुत
बाद में शुरू हुई, शुरुआत में अद्वैत
में देवता को पूजने का प्रचलन नहीं रहा था ।
एकेश्वरवादी या (शैविक) वादियों के अनुसार - मै एक तथ्य हूँ जिस की अपनी स्थिति है, हम अपनी स्थिति को अलग अलग, समूहों से,खुद को,अपने
सत्य के माध्यम से जोड़ते है; हम
खुद को जिस भी संरचना के साथ जोड़ते है हम वो हो जाते है उदाहरण के लिए—
मै तथ्य
मै परिवार
मै समाज
मै पंथ
मै पृथ्वी
मै अंतरिक्ष
मै शिव
इन की आर्थिक नीति हड़प्पा से जोड़ कर देख सकते है क्योंकि वहां से पशुपति सील पायी गई जो हमें कश्मीरी शैविक दर्शन में भी मिलती है। राखीगड़ी
में गणेश की कुशान युग [4]
सील भी मिली है | ये नगर शायद युद्ध के समय ही एकृतित होते होंगे बाकि समय ये अलग
अलग स्वतंत्र रूप से होते होंगे | मार्कोपोलो के अनुसार राजा अलग ऊंचे आसान में नहीं
सभी के साथ जमीं पर बैठता था जो शैविक दर्शन के समानता के भाव को दर्शाती है। दक्षिण
राज्य व्यवस्था से भी इन की तुलना कर सकते हैं। इन में ही शायद स्त्रीप्रधान राष्ट्र भी शामिल
थे जिनका विवरण हमें देवी उषा के रूप में वेदों में मिलता है। गणराज्य व्यवस्था भी प्रचलित थी; मरुतों को गणों का स्वामी व गणों की संख्या एक जगह 63 बताई गई
है।
मरुतों को ऋग वेद में रूद्र की संतान कहा गया है जो गणराज्यो के नायक थे[5]
| सभी दर्शन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अलग अलग आश्रमों के माध्यम से विद्मान थे
|
द्वैत इंद्र या वैष्णव दर्शन
शुरुआती साहित्य में द्वैत दर्शन के भारतीय उपमहाद्वीप पर दो बड़े उदहारण पाए गए, इनमे एक तरफ आर्य है जो की मध्य एशिया से आ कर सिंधु व सरस्वती के बीच बसे वही
दूसरी ओर आज के उत्तेर प्रदेश व मध्य प्रदेश के अधिकतम हिस्सों में वैष्णव राज्य स्थापित
था दोनों दर्शन ही राजा मनु व जलप्रलय की अवधारणा को मानते थे आर्यो ओर वैष्णवों दोनों में नेतृत्वकर्ता को पूजा जाता था, इनका मानना था की नेतृत्वकर्ता ही जब समाज की आर्थिक दैनिक सामाजिक तौर पर चीजों
का निर्धारण करता है तो वो ही आराधना के लायक है।
वैष्णव दर्शन के अनुसार - मै ही ब्रह्मा हूँ मै ही विष्णु हूँ मै ही सब पृथ्वी
ब्रह्माण्ड हूँ क्यों कि मै नहीं तो कुछ भी नहीं।
प्रकृतिवादी या बहुईश्वरवादी (ब्रह्मवादी)
इनका मानना है कि बहुआयामी कारणों से पृथ्वी में जीवन की उत्पत्ति हुई व पृथ्वी में जीवन के पीछे कई शक्तिया विद्यमान है। किसी
एक की कमी भी पृथ्वी में जीवन का विनाश कर सकती है।
दर्शन के आधार पर देखे तो गणराज्य प्रकतिवादी व्यवस्था थी जिनका
जिक्र वैदिक व उत्तरवैदिक साहित्य में तक्षिला गणराज्य के तौर पर सुनने को मिलता रहता
है। प्रकृतिवादियों की वैचारिक संरचना में सांख्य ही एक दर्शन है जो अभी भी विद्यमान
है जिसका मूल प्रकृति व पुरुष(चेतना) है। सांख्य का मानना है पुरुष प्रकृति से ही
निकला है तो पुरुष प्रकृति से बाहर नहीं सोच
सकता, उसके विचार प्रकृति से ही निकलते है। सांख्य को प्रकृतिवादी भी बोला जा सकता
है; काफी दार्शनिक ब्रह्मा को प्रकृति व चेतना या पुरुष को सरस्वती के तौर पर भी
देखते है। अन्य अद्वैत विचारो की तरह ब्रह्मा भी पूजनीय नहीं रहे होंगे। योग और
आयुर्वेद की उत्पत्ति काफी इतिहासकार सांख्य से मानते हैं | जोहन्सटन, सुरेंद्रनाथ
दास गुप्ता, और अन्य इतिहासकार इसे वेदों व उपनिषद से पुराना मानते हैं।
उनका मानना है एकोऽद्वितीय, छन्दोगया, कथा उपनिषद, महाभारत, गीता, रामायण, स्मृतियों, पुराणों व अन्य ग्रंथो में इसे उच्च श्रेणी
के ज्ञान के तौर पर माना जाता रहा है।
एक मत ये है की अशोक के शासन के दौरान सभी गैर सवर्ण ईश्वरी मतों का व ईश्वरी
मतों के दर्शन ग्रंथों का विनाश कर दिया गया, व बाद में अशोक के साम्राज्य के अंत के बाद द्वैत दर्शन के साथ मिला कपिल मुनि
ने इस के ज्ञान को फिर एकत्रित कर संख्या ग्रंथो की पुनः रचना की |
बहु ईश्वर (ब्रह्मा) वादियों के अनुसार - मै कि उत्पत्ति हम से हुई है हम ही मै को पहचान प्रधान करता है बिना हम के मै कि कोई पहचान नहीं |
इनका मानना है कि हम एक परिवार में एक पहचान के साथ पैदा होते हैं। इस लिए परिवार या समुदाय यानि हम के बिना मै का कोई अस्तित्व नहीं है।
इनकी आर्थिक, न्यायिक व शैक्षिक व्यस्था की तुलना हम गणराज्य व्यस्था से
कर सकते हैं।
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