4/16/19

TSC Philosophy | हिन्दू: एक गैर राजनैतिक परिभाषा | Part 1 | Tarun Bisht

Pashupati Seal from Harappan Civilisation 


हिन्दुइस्म सिर्फ एक पंथ नहीं है। इसके पीछे पूरा का पूरा इतिहास और संस्कृति का अनन्त वितान फैला हुआ है। इसके सन्दर्भ में इतिहास की बात करें तो हमें सबसे पहले इंसानी अवशेष भारतीय उप-महादीप में करीब डेढ़ लाख साल पहले होमो-सेपियन्स और होमिनिड्स (प्रथम मानव जिसमें मानसिक चेतना पायी गई ) के मिलते है। अगर DNA टेस्ट के आधार पर दक्षिणी एशिआई जेनेटिक्स देखे तो हमें मानव आगमन के भारतीय उपमहाद्वीप में चिह्न करीब 60,000-65000 वर्ष पूर्व के मिलते हैं।[1] इस सन्दर्भ में कुछ पारिभाषिक शब्दों को समझ के ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

भारतीय ईश्वरी मत

भारतीय ईश्वरी मत की संरचना को समझने के लिए पहले ये जान ले की भारतीय उपमहाद्वीप में हर वैचारिक संरचना एक दर्शन के तौर पर देखी जाती रही है जिस की सामाजिक व राजनैतिक व्याख्या को हम आश्रम या गोत्र के नाम से भी जानते हैं।

आश्रम व्यवस्था

वैदिक काल की शुरुआत में समिति व सभा का उल्लेख आता है [2] जिसमें स्त्रिया भी समान रूप से शामिल होती थीं।[3] वैदिक काल में हर दर्शन का कई आश्रमों द्वारा अनुसरण किया जाता था। हर आश्रम, दर्शन की अपनी व्याख्या अपने स्थानीय व राजनैतिक परिवेश के अनुसार करता था। इन आश्रमों के अधिकार में अनेक कबीले होते थे, हरेक आश्रम अपने समुदाय की जीवनशैली, विचार, आर्थिक महत्त्व व आस्थाओं को नियंत्रित करते थे। आश्रम ही दर्शन की व्याख्या व आदर्श तय करते थे। इसी के आधार पर वह न्यायिक संरचना बनती थी जिस का राजा द्वारा नागरिकों से पालन करवाया जाता था। हरेक नागरिक के कर्म के अनुसार उसका धर्म तय था। अलग अलग आश्रमों के द्वारा प्रत्येक कारीगर वर्ग, किसान ब्राहमण क्षत्रिय व्यापारी मजदूर आदि के लिए अलग अलग धर्म तय था जो उन के अधिकारों के साथ साथ जिम्मदारी भी तय करता था। धर्म के विपरीत कार्य करना या धर्म का उत्तरदायित्व न निभाना दंडनीय था। सबसे बड़ा दंड था दर्शन रहित कर देना यानि गोत्र-बाहर कर देना। यह देश निकाला भी था। आश्रमों में ब्रह्म ऋषिओं द्वारा दर्शन के अनुसार विचार कर आश्रम के अनुयायियों के लिए निर्णय लिए जाते थे। आश्रम के अंदर आने वाले राजा भी इस न्यायपालिका के फैसले को मानने से इंकार नहीं कर सकते थे। ब्रह्म ऋषि बनने के लिए जीवन चक्र के ज्ञान को पूर्ण रूप से समाज में प्रणामित करना होता था।
अलग अलग आश्रमों द्वारा युद्ध के समय एक सेनानायक चुना जाता था। गणराज्य व्यवस्था भी प्रचलित थी। मारुत को गणों का स्वामी व गणों की संख्या एक जगह 63 बताई गई है।[4] ये युद्ध के समय आश्रम के अधीन कबीलाई सेनाओं का संचालन करता थे। युद्ध में जीते गए पशुओं व लूट के माल का बंटवारा भी सेनानायक द्वारा नियंत्रित था। गोत्र रक्षा के लिए गोत्र का मनोबल ऊँचा रखने की जरुरत थी जिस के लिए युद्ध में नेतृत्व कर्ता को नायक बनाया गया; उसके हर युद्ध विजय की कथा अतिश्योक्ति में लिखी गई।
इस तरह की स्तुतिओं से वेद भरे पड़े हैं। नेतृत्व कर्ता की पूजा का प्रचलन वैदिक काल में काफी आम था। अस्तित्व के लिए नेतृत्व कर्ता ही धन, यश की रक्षा करता था । वही दुश्मनों का नाषक तो था ही, साथ में युद्ध में जीत कर लाए गए पशु धन का भी यज्ञ में सभा और समिति द्वारा वितरण किया जाता था।[5] नेतृत्व कर्ता  की पूजा स्वभाविक थी, इन सेना नायको के अलग अलग आश्रमों द्वारा अलग अलग नाम प्रचलित थे जैसे वरुण, इंद्र,अग्नि, मेरुत आदि।[6]
यदि आज के पश्चिमी रिलिजन के आधार पर कहे तो इन आश्रमों को हम रिलिजन कह सकते है जो आगे चल कर भारतीय उपमहाद्वीप में गोत्र पहचान के रूप प्रचलित हुए, जैसे पश्चमी सभ्यता में अब्राहम दर्शन से ज्यूस, क्रिस्चियन व इस्लाम आदि रिलिजन की उत्पत्ति हुई।

दर्शन

हर वैचारिक दृष्टि एक दर्शन है जिस की आधार संरचना "मै और हम" की व्याख्या से निकलता है। मैं और हम की व्याख्या के बगैर भारतीय संस्कृति में किसी भी विचार को दर्शन नहीं माना जा सकता है। भारतीय ईश्वरी मत जानने से पहले हमें दर्शन जानना जरुरी है। अगर हम दर्शन के माध्यम से देखें तो दर्शन को दो हिस्सों में बाँट सकते हैं— द्वैत (dual)— जिनका मानना है कि ईश्वर ने पूरे विश्व की रचना की और वही इस पर राज करता है, यह विचारधारा द्वैत कहलाती है। उदाहरण के लिए स्वर्ग-नर्क, अच्छा-बुरा, सत्य-असत्य, दोस्त दुश्मन। अद्वैत (Non-Dual) एक पूर्वी विचारधारा है, जिसके अनुयायी  मानते हैं कि सम्पूर्ण विश्व ही ईश्वर है; वह अच्छे-बुरे, सही-गलत से परे होता है। इनका मानना है हम प्रकृति से निकले है प्रकृति में समां जायेंगे; कोई स्वर्ग-नर्क नहीं होता, इनका मानना है हर चीज जो समय के साथ अपना रूप परिवर्तन करती है वो जीवित है; ये मत पूर्वजन्म पर भी विश्वास करता है। इन दर्शनों में ईश्वर मात्र एक विचार है जिस की वजह से ये ईश्वर को पूजने की जगह ईश्वर को जानने पर ज्यादा जोर देते हैं व गुरु पूजा भी यहाँ बहुत प्रचलित है।
ये सारे  दर्शन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अलग अलग आश्रमों व गणराज्य के माध्यम से विद्यमान थे ।
जब हम शुरुआती भारतीय दर्शन की बात करते हैं जिनके उल्लेख हमें वेदों व उपनिषदों से मिलते हैं तो हम उन्हें तीन हिस्सों में बाँटते हैं, यही तीन दर्शन बाद में सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में त्रिमूर्ति के नाम से प्रसिद्ध हुए



[2] प्राचीन भारत में राजनैतिक विचार एवं संस्थाए रामशरण शर्मा p 91
[3] प्राचीन भारत में राजनैतिक विचार एवं संस्थाए रामशरण शर्मा p 92
[4] प्राचीन भारत में राजनैतिक विचार एवं संस्थाए रामशरण शर्मा p 94
[5] प्राचीन भारत में राजनैतिक विचार एवं संस्थाए रामशरण शर्मा p 95

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