6/29/19

TSC Philosophy | हिन्दू : एक गैर राजनैतिक परिभाषा | Part 7 | Tarun Bisht


नए घरानो का उदय


मौर्य काल की शुरुआत में बड़े राष्ट्रों (राज्यों) की व्यापर में उन्नति हुई एवं नए कारीगर घरानो का उदय हुआ, जहाँ पारिवारिक व्यापार होने से उत्पादन में कार्यकुशलता जरूर आयी पर पारिवारिक व्यापर से बाहर जाना धीरे धीरे मुश्किल होता  गया। ऐसे समय में किसी प्रशिक्षित गुरु से शिक्षा प्राप्त कर नए व्यापारिक व सामाजिक घराने में शामिल हुआ जा सकता था । ऐसे समय में सामाजिक स्तर बदलने वाला गुरु के सामाजिक स्तर में शामिल हो जाता था व शिक्षा दे कर अपने परिवार या समुदाय के लोगो को भी शामिल कर सकता था पर इस के लिए उसे गुरु के समुदाय के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी । परीक्षा उत्तीर्ण कर एवं गुरु को गुरु दक्षिणा दे कर वो एक सामूहिक भोज के उपरान्त नए  सामाजिक स्तर में शामिल होता था। कारीगरों, कुम्हारो, सोनारो, बुनकरों  व अन्य किसी भी वर्ग या समुदाय  में शामिल होने से पहले ये सारे रिवाज जरुरी थे। उस समय के कारीगर सामाजिक तौर पर आज के इंजीनियर से कम नहीं थे। शिक्षण संस्थानों में धातु का काम व तकनीकि कारीगरी भी सिखाई जाती थी एवं धातु का काम करने वाले प्रशिक्षित कारीगरों का सामाजिक सम्मान भी बहुत था। सामरिक दृष्टि से किसी भी राष्ट्र के लिए ये समुदाय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे । जनसामान्य में पुराने प्रतीक चिन्ह जो पूजनीय रहे थे वह ज्यादातर कबीले के नायक या आश्रमो के अध्यापक या ऋषि होते थे पर अब समाज में अलग अलग व्यापारी गणो के अलग अलग नायक थे जिन के कार्यो का उल्लेख अतिश्योक्ति में किया जाता था । इन्ही नायको ने आगे जा कर  व्यवसायिक सामुदायिक देवताओ की जगह ली। इसके साथ ही कारीगर समाज के अलावा व्यापारी, ब्राह्मण व क्षत्रिय (नौकरशाह) वर्ग का भी उदय हुआ । इस के अलावा सेवक, कलाकार  व मजदूर वर्ग को शूद्र बोला गया । नई सामाजिक वयस्था में सभी के कर्त्तव्य व अधिकार सुरक्षित थे , मगर युद्ध में शूद्र भी क्षत्रियो के साथ मिल कर लड़ते थे ।


कुछ इतिहासकारो का मानना है कि अशोक के बौद्ध पंथ अपनाते ही सभी दर्शन के मंदिरो का विनाश सम्पूर्ण राज्य में शरू हो गया । बौद्ध स्तूपों में वास्तुकला के ऐसे काफी नमूने मिले है जिन्हे देख कर ये कहा जा सकता है की जैन एवं  अन्य मंदिरो व स्तूपों को गिरा कर इन बौद्ध  स्तूपों की रचना की गईं थी। भारतीय संस्कृति में शासक को कोई एक दर्शन ग्रहण करना होता था राजा बनने के लिए वर्ना उसे तानाशाह ही माना जाता था। जहा एक ओर उसे दैवीतत्वों से जोड़ कर बताया गया , वही दूसरी ओर राजा सिद्धांतः धर्मशास्त्रों के नियमो का पालन करने को कर्तव्यबद्ध था । दर्शनो के आधार पर बने धर्मशास्त्र राजा की स्वेछाचारी प्रवित्तियों  पर अंकुश लगाते थे ।   इसे हम आज के संविधान से जोड़ कर देख सकते है ,जहा संविधान व न्यायपालिका हमारे नेतृत्वकर्ता की स्वेछाचारी प्रवित्तियों पर अंकुश लगाते है ।कोई दर्शन अपनाये बिना कोई राज्य कल्याणकारी व सभ्य राज्य नहीं कहलाता था। प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर लिखती है कि “अतीत में जोर देकर कहा गया है की मौर्य साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण अशोक की बौद्ध समर्थक नीतियां थी व उस की बौद्ध समर्थक नीतियों के चलते ब्राह्मणों का विद्रोह पर उतारू होने का आरोप लगाया है” । लेकिन अशोक की सामान्य नीति ब्राह्मण धर्म को क्षति पहुँच कर बौद्ध धर्म के सक्रिय प्रचार की नहीं थी । हर जन मानस को अपना दर्शन स्वीकार करने की या या अन्य दर्शन अस्वीकार करने की पूरी आजादी थी । वह बार बार कहता था कि ब्राहमणो  व  श्रमणो  दोनों का आदर करना चाहिए, पर समय की दृष्टि से देखे तो यह एक स्वाभाविक  स्थिति थी । अशोक का शासन जहाँ व्यापारियों के लिए एक बड़ा अवसर था, वही अशोक को दबाव बनाए रखने के लिए आलीशान इमारतों की जरुरत थी । एक मत यह भी है  कि इससे पहले इतने बड़े राष्ट्रों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी  जो  बड़े आलीशान भवनों व स्मारकों  का निर्माण कर सके जितने विशाल स्मारक मौर्य काल या उस के बाद बनाए गए  । जहा आश्रम व्यवस्था ‘समाज कल्याण’  पर आधारित थी वहा इस तरह कि आलीशान इमारते संभव नहीं थी । 


वही दूसरी ओर आरम्भिक पाली बौद्धग्रंथो में इन्द्र तथा ब्रह्मा को बुद्ध के उपदेशो को श्रद्धापूर्ण सुनने वालों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। महायान ने अपने देव कुल में कई सारे नए देवताओ का जिन में गणेश, शिव और विष्णु भी हैं समावेश कर लिया पर ये तमाम देवता बुद्ध के अधीनस्थ थे। ये ग्रन्थ अशोक के समय कि स्थिति को दर्शाते हैं ।आरम्भ से ही बौद्ध संघ में ब्राह्मण( विद्वान) रहे थे, और इसे एक नए आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक, व वैचारिक रूप में आश्रमो व ब्राह्मणो ने स्वीकार किया ।

अशोक का राज्य यूरोप तक फैला हुआ था, मगर अशोक की प्रमुख सत्ता उत्तर भारत तक ही  सीमित रही  और अशोक की मृत्यु  के उपरांत प्रशासनिक उच्च अधिकारीयों के हाथ में शक्ति केंद्रित होती चली गई । युनानी राष्ट्र ने खुद को पुनः स्वतंत्र घोषित कर फिर पंजाब में अपना राज्य कायम किया । मौर्य साम्राज्य के डूबने का कारण भी कुछेक इतिहासकार इन स्मारकों पर होने वाला खर्चा ही बताते है । स्तूपों व स्मारकों के खर्चे से मौर्य साम्राज्य अशोक के समय ही आर्थिक रूप से काफी ख़राब स्थिति में पहुँच गया था जो मौर्य साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण बना । 

धीरे धीरे कई  सामंतो  (नौकरशाहों) ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया । ऐसे समय में अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की व पुनः वैदिक राज्य  की स्थापना की।   इसमें चाणक्य का अर्थशास्त्र लागू न हो कर वैदिक कर नीति लागु थी । समाज ने दर्शन हेतु वैदिक दर्शन को अपनाया व वैदिक रीतिरिवाजों का भी अनुसरण फिर से शुरू हुआ । ये वैदिक राज्य करीब 112 वर्ष चला ।  

चाणक्य की यह  व्यवस्था आर्थिक और प्रशासनिक तौर पर हर जगह लागू नहीं थी या ये कहें कि ये व्यवस्था इसी रूप में फिर कभी कहीं और लागु हुई हो ऐसे उल्लेख नहीं मिलते, पर ऐतिहासिक दृष्टि से इसे कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। पर चाणक्य के अलावा सातवाहन राज्य में जो कि मातृवंशावली राज्य था वहां की अर्थव्यस्था व प्रशासन व्यवस्था चाणक्य वयस्था से भिन्न मिलती है ।
 
बाद में गुप्त वंश ने भी वैदिक दर्शन के आधार पर वैदिक आर्थिक निति को अपनाया, मगर इस दौर में वैदिक शासन में एक बड़ा बदलाव देखने को मिलता है जिस में वैदिक पुराने तीन दर्शनों के अलावा  जैन ,बौद्ध व अन्य दर्शनों को भी वैदिक दर्शनों में जगह मिली ।  इस नए दृष्टिकोण का उल्लेख हमें  स्यादवाद में भी मिलता है

स्यादवाद

किसी भी वस्तु को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण हैं। इनका मानना है की किसी एक दृष्टि से सत्य को सिर्फ एक तरफ़ा तरीके से ही देखा जा सकता है पर ये सत्य निरपेक्ष नहीं होगा। सापेक्ष या एक दर्शन सम्बन्धित सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वास्तु के सम्बद्ध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता । लोगो के बीच भेदभाव का कारण यही है कि वह अपने विचारो को अचल सत्य मानने लगते है और दूसरे के विचारो की उपेक्षा करते है। इस लिए अनेकतावाद जरुरी है जहाँ भिन्न दर्शनों के माध्यम से देखने से सत्य और वास्तिवकता अलग अलग समझ में आती है अन्यथा एक ही दृष्टि से देखने से पूर्ण सत्य की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। 

सम्पूर्ण उत्तर भारत में अनेको छोटे छोटे सामंत राज स्थापित  हुए । ऐसे ही एक सामंत श्रीगुप्त व उस के पुत्र  घटोत्कच ने उत्तर भारत के सामंतो को जीतते हुए गुप्त वंश की नीव रखी पर इन दोनों ने ही महाराजा की उपाधि धारण की ।  उस समय में  महाराजा की उपाधि सामंतो को दी जाती थी । ये विवरण प्राप्त नहीं कि ये किस की शासन वयस्था में सामंत थे।  चन्द्रगुप्त गुप्त साम्राज्य के पहले शासक बने ।

ये राज्य वैदिक गोत्र गठबंधन के साथ साथ नए गोत्र गठबंधन को स्वीकार कर बना था । चाणक्य व्यवस्था के मुकाबले वैदिक सामंतवादी व्यवस्था में लोगो पर करो का बोझ  बहुत कम था, जिसकी वजह नई सामंती निति थी जिस ने प्रशासन कर्मचारियों की संख्या भी कम कर दी थी जिस से राज्य को नकद वतन देने का बोझ कम रहता था।

गुप्त काल में वेतन के रूप में सामंतो को ज़मीन का टुकड़ा दिया जाने लगा । ये सामंतवाद की दूसरी स्थिति थी ।पर कर रहित ज़मीन दान ब्राह्मण  (विद्वानों) व बौद्ध भिक्षुओं को मिलने के भी कई प्रमाण मिले है । इन्हे देख कर ये अनुमान होता है कि विश्वविद्यालयों के अलावा शोध के लिए भी ज़मीन के कर रहित  टुकड़े राजा द्वारा अनुदान में दिए जाते थे ।

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