8/7/21

दर्शन | असभ्य भारत : विदथ-गण-सभा-समिति प्रथम प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था । तरुण बिष्ट

A 5000-year old wall in the Harappan settlements of Rakhigarhi, Haryana (photo via special arrangement)

 



     रामशरण शर्मा की पुस्तक 'प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ' पढने के उपरांत महसूस हुआ कि आखिर हमें अपने इतिहास में झाँकने की जरूरत क्यों है? और विशेष तौर पर छठे अध्याय 'विदथ' ने मुझे इस विषय पर पुनः लिखने के लिए विवश कर दिया। दरअसल  समानता के आदर्शों पर बनी हमारी व्यवस्था को समझे बिना हमारे समाज और इतिहास को समझना असंभव है ।


     अपनी संस्कृति को समझने के लिए हमें प्राचीन भारत की सभ्य संस्थाओं के साथ-साथ तथाकथित असभ्य संस्थाओं को समझना भी बेहद आवश्यक है। हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था जहाँ पूर्वलिखित कानून व्यवस्था यानि धर्म को ही सभ्य मानती है। जबकि गणतंत्र जैसी व्यवस्थाएँ जनसमूह द्वारा दर्शन, स्थिति और मंशा के अनुसार न्याय का निर्धारण करती थीं । 


          प्राचीन भारतीय गणतंत्रों में पूर्वलिखित कानून लागू न होने की स्थिति में इन्हें प्राचीन भारतीय असभ्य व्यवस्थाओं की श्रेणी में रखा गया। यही वह मुख्य कारण रहा कि गणतंत्र को प्राचीन सामाजिक आस्था   कहा गया न कि रिलीजन या धर्म। गणतंत्र / गण-व्यवस्था को प्रकृतिवादी व समानतावादी दर्शन के तौर पर भी हम जानते हैं, प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में इसे 'शैविक दर्शन' कहा जाता था। 


       'गणतंत्र कितना प्राचीन है!' ये कहना बेहद कठिन है क्योंकि 'गण' का सबसे पहला उल्लेख भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्राचीन माने जाने वाले ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है। जहाँ 'गण' का उल्लेख ४६ बार किया गया है।  जिसकी वजह से 'गण' वेदों के काल से भी प्राचीन माने गए हैं। 


          गणतंत्र मे शामिल कबीलों को 'गणकुल' कहा जाता था । गणों को एक जनजातीय इकाई के तौर पर व एक बड़े परिवार के रूप में देखा जाता था जिनके शासक उनके बीच से यानि उनके रक्त संबंधी ही हो सकते थे। इसीलिए 'गण' का अभिप्राय एक बड़े परिवार से है।  हर गण निवासी सीधा राजा का रक्तसंबंधी था, इसीलिए उत्तर भारतीय गणकुलों को 'राजपूत' कहा जाता था ।


     गण-व्यवस्था एक समानता पर आधारित सामाजिक आस्था थी, जो विदथ-गण-सभा-समिति जैसी प्रशासनिक संस्थाओं  के माध्यम से लागू की जाती थी। प्राचीन भारत में और भी कई प्राचीन गणतांत्रिक संस्थाएँ  मिलती हैं। जैसे- पंचायत- महापंचायत, पौर- महापौर, जनपद- महाजनपद जैसी अनेकों गणतांत्रिक व्यवस्थाएँ विद्यमान थीं। 


    'विदथ' शब्द मूलतः 'विद्'  से निकला है। जिसका अर्थ है-'जानना'। इसीलिए जानकार को विद्वान भी कहा गया ।  गणतंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा को 'विदथ' कहा गया । 'विदथ' का अर्थ एक बड़ी पारिवारिक जनसभा से है। बड़ा परिवार होने के कारण सभी वयस्क स्त्री-पुरुष एक जगह एकत्रित होकर जब अपनी समस्याओं पर विचार करते थे  जो सामान्यतः गाँव के सभी बालिग पुरुष व महिला सदस्यों  की जनतांत्रिक सभा का काम करती थी। इसमें  सभी की बराबर भागीदारी थी। मूलतः ये एक कबीलाई व्यवस्था थी जिसमें कबीले के स्त्री-पुरुष समान अधिकार रखते व मिलजुल कर कबीले की सामूहिक जरूरतों को पूरा करते । 


      एक सच्चे गणतंत्र की तरह यहां प्राकृतिक संसाधन सामाजिक संपत्ति थे । 'विदथ' में निजी कुछ भी नहीं था। एक व्यक्ति द्वारा किया गया सारा शिकार केवल उसी का नहीं था, न ही किसान द्वारा उपजाए अन्न में किसान का अकेला अधिकार था, क्योंकि खेती सामाजिक उद्यम था ।  

खेती, शिकार, युद्ध, लूट और अन्य स्रोतों से 'विदथ' के लोग जो कुछ प्राप्त करते थे, उसे 'विदथ' को सौंप  देते थे।  'विदथ' के ही द्वारा चीजों का बँटवारा जिम्मेदारी व श्रम के योगदान के आधार पर किया जाता था। 


अनाज और भोजन सामग्री के आधार पर देखे तो विदथ व गण पूरी तरह आत्मनिर्भर थे । रक्त-रिश्तों एक बड़ा परिवार होने की वजह से विदथ व गण मे कोई भूखा नही सोता था । किसान किसानी और शिकार के अलावा व्यापारिक उपयोग के लिए चीजों का निर्माण करते थे। व्यापार और वस्तु निर्माण ही धन अर्जित करने का मुख्य रास्ता था। कारीगर कोई अलग वर्ग नहीं था। किसान ही कुम्हार, धातुकर्मी, बुनकर, सुनार , मनके व शीशे बनाने वाला, हाथीदांत, नक्काश ,बढ़ई व व्यापारी था । सामुहिक खेती से बचे समय में किसान कारीगरी व व्यापार के माध्यम से निजी मुद्रा अर्जित करता था। 

 

         ग्राम 'विदथ' में परिवार की जनसंख्या के बढ़ने पर नए गाँव को बसाना जरूरी था। गाँव में एक सीमित संख्या से अधिक घर नहीं बसाये जा सकते थे। नए गाँव को बसाने के लिए जमीन साफ कर खेती योग्य बनाने, घर बनाने, जंगल साफ कर खेत बनाने में पूरा गण सहयोग करता। नये गाँव बढ़े हुए परिवार थे जो अलग होते हुए भी रक्त संबंधों के माध्यम से आपस में जुड़े हुए थे। गाँव का इस तरह टूटना एक ओर विदथ में लोगों की संख्या को नियंत्रित करता, वहीँ  दूसरी तरफ 'गण' के विस्तार को भी बढ़ाता । 


     हर 'विदथ' में चुनाव के माध्यम से विदथ प्रमुख का चुनाव होता जो सयाना या पदान कहलाता था।  'गण' में शामिल सभी कबीलों के विदथ-प्रमुख मिलकर अपने बीच से गण-प्रमुख का चुनाव करते। गण पहचान ही गणपरिवार की मुख्य पहचान थी, जो वो अपने नाम के पीछे लगाते थे। गण-प्रमुख गण राजा गणपति कहलाता था । युद्ध से प्राप्त धन का समान बंटवारा भी गणपति का ही दायित्व था।   


       युद्ध के समय पूरा गणकुल 'गण' में इकट्ठा होकर दुश्मनों से मोर्चा लेता था। वहीं आम समय में 'गण' बाजार के रूप में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। गणपरिवार जिस में  गण मे शामिल सभी विदथ के किसान कारीगरों द्वारा बनाया सामान यहाँ की मंडियों से बिकता था, जहाँ किसी भी गण परिवार सदस्य को अपना बनाया माल बेचने का अधिकार था। 'गण' सिर्फ मंडी का ही नहीं गोदाम का भी काम करता था।

 'गण' मे मंडी होने की वजह से दुश्मन के आपात हमले के समय परिवार की रक्षा के साथ-साथ खाद्यान्न भंडार भी मोर्चा लेते हुए 'गण' में होता। जिससे दुश्मनों से लड़ते हुए गण के पास अपने लोगों के लिए प्रचुर अन्न भंडार बना रहे । युद्ध के समय के सामूहिक भोग को यज्ञ कहा जाता था, जो युद्ध खत्म होने तक चलता था ।   


       गणों में सिर्फ गणराज्य व्यवस्था ही प्रचलित नहीं थी। व्यावसायिक महत्व के क्षेत्रों में गण-परिषद् व्यवस्था भी लागू थी। हस्तकार गाँव भी बसे थे जहाँ पूरा गाँव या गण किसी एक तरह की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध थे। वहीं कुछ ऐसे गण भी थे जो अपने व्यापार की वजह से अत्यंत समृद्ध हुए।

 गाँव एक बड़ा परिवार था जो सामूहिक रूप से व्यापार करता था। कारीगर गाँववाले 'गण' आम तौर पर गणपरिषद कहलाते थे। गणराजा गणपति की जगह गणपरिषद् में स्थापित गणों का प्रतिनिधि राजा कार्तिकेन कहलाता था ।  

       

यज्ञ का आयोजन युद्ध के समय भी आयोजित किया जाता था। जहाँ पूर्वजों के दर्शन के लिए लड़ने गए योद्धाओं की जीत की कामना की जाती थी। युद्ध से गण सेना के लौटने तक गण युद्ध में न शामिल हुए पुरुष ,स्त्री ,वृद्ध व बच्चे गण में एकजुट होते। जहाँ सामूहिक भोज का आयोजन होता था। यज्ञ यानि सामूहिक भोज का आयोजन सिर्फ युद्ध में ही नहीं बल्कि महामारी, बाढ़ ,अकाल जैसी आपातकालीन स्थितियों में भी किया जाता था । 


A local walks over a Harappan mound in Rakhigarhi 



   वहीं फसल अच्छी होने पर व व्यापार में अधिक लाभ होने पर भी यज्ञ का आयोजन किया जाता था। जहाँ अपने दर्शन के नाम पर गण निवासी सामूहिक भोज के लिए अन्न सामग्री व पशुओं की आहुतियाँ देते।  हर 'गण' चारदीवारी से घिरा किला नहीं था। 'गण' उस जगह को कहते थे, जहाँ से पूरा गण-परिवार एकजुट हो मोर्चा लेता था। गण की आर्थिक व भौगोलिक स्थिति भी गण की बनावट व बसावट तय करती थी ।  


व्यापार उपयोग की चीजों व मेलों पर कर निर्धारित था। वही 'विदथ' भी उपज का एक हिस्सा कर के रूप में प्राप्त कर उसमें से स्थानीय प्रशासनिक कर्मचारियों का वेतन चुकाकर बाकी पैसा गणप्रमुख को जमा कराता था। 'विदथ' द्वारा स्थानीय प्रशासनिक जिम्मेदारियों मे शामिल लोगों की तनख़्वाह सीधा 'विदथ' द्वारा प्राप्त होती थी इसीलिए उनकी सीधी  जवाबदेही 'विदथ' के लिए थी । 


       प्रशासनिक कर्मचारी व सैनिकों के रूप में भी गाँव के लोग ही तैनात थे। गणपति अलग-अलग 'विदथ' से प्राप्त कर में से अपने खर्चे के लिए एक हिस्सा काटकर बाकी पैसा सभा-प्रमुख को जमा करता था। इस कर के हिस्से से गण राजा को गण के प्रशासन व सुरक्षा पर खर्च करना होता था। गणपति/कार्तिकेन (गणप्रमुख) गण के प्रतिनिधि के तौर पर गोत्र सभा में शामिल होता। सभा का उल्लेख ऋग्वेद मे आठ बार हुआ है।  गोत्र पहचान कबीले की पितृ-वंशावली के आधार पर बनी पहचान थी। जहाँ तक कबीले व 'गण' खुद को रक्त संबंधों के आधार पर जोड़ते थे। गणों से प्राप्त कर गोत्र-सभा में जमा कराया जाता । 


   गोत्र तक गणकुल रक्त के रिश्तों से जुड़ा एक बड़ा परिवार था।  इसीलिए गोत्रों के अंदर विवाह संभव नहीं था। हर गोत्र की अपनी गोत्रसभा होती थी। गोत्र के सभी गणप्रमुख मिलकर अपने बीच से सभा प्रमुख को चुनते थे जिन्हें वे देवता या विश कहते थे। गोत्र पर कर लागू करना या गोत्र के अंदरूनी सभी मामलों का निपटारा व निर्णय गोत्रसभा तक सीमित थे। इसीलिए वैदिक गणों पर सीधा शासन देवताओं का था। 

जिस वजह से वैदिक आर्यों की भूमि शिवालिक आज भी देवभूमि के नाम से जानी जाती है। इसीलिए वैदिक कबीलाई लोगों पर लागू कर देवताओं के कर के तौर पर भी जाने जाते हैं। गोत्रसेना भी स्वतंत्र इकाई थी जो गोत्रसभा प्रमुख के लिए सीधा जवाबदेह थी न कि गणअध्यक्ष के लिए।

 


 

गणतंत्र समिति इकट्ठा होकर विश/देवता, गणअध्यक्ष/इन्द्र का चुनाव करती थी।  गणअध्यक्ष  समिति द्वारा निर्वाचित व पुनःनिर्वाचित होता था। गण-अध्यक्ष की पदवी  में किसी स्त्री के शासित होने की स्थिति में पूरा गणतंत्र शाक्त कहलाता था।  गणअध्यक्ष का कार्य था गोत्रों के बीच होने वाले टकरावों का निपटारा करना ।  


       ऋगवेद और अथर्ववेद दोनों में समिति के विचारों की एकता पर जोर दिया है । समिति में सहमति के लिए प्रार्थना करते हुए कवि कहता है- हमारा मंत्र एक हो, समिति एक हो, मन एक हो और हमारे विचार (चित्त) एक हों । लोग समिति में सहमति पर पहुँचने का प्रयत्न करते थे । 


       तनख़्वाह निचली जनसभाओं से बँटते हुए केंद्र को पहुँचती थी। इसलिए प्रशासनिक कर्मचारियों व सैनिकों की वफादारी और जवाबदेही आम जनता के लिए थी न कि गणअध्यक्ष के लिए। 


गणों की सबसे बड़ी विशेषता उनके रिश्तों का गठबंधन ही था जो वैदिक आर्य गणकुलों की देवभूमि को अजेय बनाता था । 


    विवाह से रिश्तेदारियों की शुरुआत हुई। गणों में जब स्त्री के दूसरे गोत्र में शादी की प्रथा स्वीकार की गई तभी लड़की को अपने गण से उसके और उसके नए परिवार से सुरक्षा का वादा भी मिला- ये बेटी की सुरक्षा का वादा ही गणतंत्र की एकता का मुख्य आधार बना। 'गण' के किसी भी इंसान पर हमला करने का मतलब था- 'गण' पर हमला करना। और गण पर हमला करने का अर्थ- गोत्र परिवार के साथ साथ गण की सभी बहुओं के गोत्र परिवारों पर हमला करना।


      रिश्तेदारियों के माध्यम से जुड़े गणतंत्र में किसी भी कबीले पर आक्रमण पूरे गणतंत्र पर आक्रमण के समान था। एक 'गण' पर हमला करने पर जहाँ उसके रक्तसंबंधी गण यानि समान गोत्रसभा की सेना ही उसकी युद्ध में मदद के लिए वचनबद्ध थी। 

वहीं प्रत्येक बहू की गोत्रसेनाएँ भी अपनी बेटी के झंडे के तले युद्ध में शामिल होतीं। युद्ध की स्थिति में बेटी के झंडे के नीचे लड़ने वाली सेना शाक्त सेना कहलाती थीं और बेटी शक्ति के रूप में मानी जाती। 


         इसका एक और कारण ये भी था कि गण अपने रक्तसंबंध के बाहर के किसी इंसान के झंडे के नीचे से नहीं लड़ते थे। यही कारण था कि गणों के साथ युद्ध के समय गोत्र सेना से कई गुना बड़ी शाक्त सेना भी शामिल होती थी। 


       जैसे पहले ही बताया गया कैसे गणों में गोत्रप्रमुख को जहाँ गोत्रसभा में निर्वाचन होने के बाद देवता की उपाधि मिलती थी ।  वहीं हर गण की बेटी को अपने नाम के बाद देवी लगाने का जन्मसिद्ध अधिकार था क्योंकि वह अपने ऊपर और अपने पति के परिवार पर आए संकट के समय शक्ति के रूप में गोत्रप्रमुख की स्थिति प्राप्त करने की अधिकारी थी । 

 मगर गणकुलों में एक ऐसा रिश्ता भी था जो गणतंत्र के बाहर विवाह करता था। ये विवाह गणतंत्र-प्रमुख की बड़ी पुत्री का विवाह था जो शक्ति कहलाती थी। 

शक्ति के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया जाता था। जहाँ गणअध्यक्ष के गणतंत्र के बाहर के अलग-अलग राजा व राजकुमार शक्ति को पत्नी रूप में प्राप्त करने की इच्छा से शामिल होते।


     शक्ति को विवाह रूप में प्राप्त करने का अर्थ था- 'गणतंत्र के साथ सैनिक गठबंधन।' जिसमें शक्ति व उसके नए परिवार पर कोई संकट आने पर पूरा गणतंत्र रक्षा करने को वचनबद्ध था। प्रचलित शाक्त देवियों मे  सती, सीता, द्रोपदी, नंदा देवी, दुर्गा, काली की कहानियाँ सबसे अधिक प्रचलित हैं। वही वैदिक साहित्य में इस रिश्ते की सूर्य और ऊषा के रिश्ते के माध्यम से व्याख्या की गई है।   


     गणों मे गण परिवार के अलावा दो और जातियों का उल्लेख मिलता है। क्षुद्रकों (डूम) और  कम्मीयों (धातु व बर्तन बनेने वाले) कायस्थ का उल्लेख भी मिलता है। ये दोनों ही गणतंत्र के बाहर से काम की तलाश में आए लोग थे जिन को गणतंत्र की नागरिकता प्राप्त नहीं थी। इन दोनों जातियों को ही गण के बाहर घर बसाने के लिए जमीन दी जाती थी। डूम का स्थानीय भाषा में अर्थ है- 'जिसका कोई अता-पता न हो।' 

डूम गणतंत्र से बाहर के लोग थे जिन्हें खेतों मे काम करने के बदले उपज की बँटाई का एक हिस्सा दिया जाता था । 


 गणपरिषदों में बाहरी मजदूर काम की तलाश में गणों मे आते थे।  मजदूर वर्ग डूम कहलाता और कारीगर वर्ग कम्मी ।

 इन्हें गण में मूल मानव अधिकार जरूर मिलते थे लेकिन नागरिक अधिकार जैसे- मताधिकार, गण की सामूहिक जमीन पर अधिकार जैसे कोई अधिकार इन्हें नहीं मिले थे। 

युद्ध में गण का साथ देकर गण के प्रति वफादारी साबित करने वालों को ही विवाह के माध्यम से गण में शामिल किया जाता था। वहीं गणपरिषद् के कुशल कारीगरों को भी लंबी कार्यावधि तक कार्य करने के बाद गणपरिषद् की सहमति लेकर विवाह माध्यम से गण में शामिल किया जाता था ।  


      नया परिवार 'गण' पहचान न लगाकर अपनी पितृ-पहचान से नए विदथ की शुरुआत करता  क्योंकि 'गण' पहचान के लिए रक्तसंबंधी होना जरूरी था। अपनी जनसंख्या बढ़ाकर अपना गण व गोत्र स्थापित करने में नए परिवार को सैकड़ों साल लग जाते।

 शुरुआती स्थिति में नए पारिवारिक विदथ वैवाहिक रिश्तों से जुड़े अपने संरक्षक गणों के साथ ही युद्ध में शामिल होते । डूम और कायस्थ को गणों में शामिल न किए जाने के दो प्रमुख कारण सामूहिक जमीन और गणों का रक्तसंबंध था। किसी को नागरिकता देने का अर्थ था- गणपरिवार में बराबर का भागीदार बनाना! इसीलिए आम तौर पर बड़े डूम और कायस्थ परिवारों से ही गण रिश्ता जोड़कर जमीन अनुदान करते क्योंकि प्रत्येक विवाहित गठबंधन गणों की शक्ति बढ़ाता था । 


     परन्तु नए गोत्र भी गणतंत्र में लगातार हिरणगर्भ अनुष्ठान  के माध्यम से शामिल होते रहते थे। गणतंत्र किसी भी नए क्षेत्र में जब विजय प्राप्त करता तो वहाँ के नागरिकों के बीच चुनाव कराकर उन्हीं के बीच से नया राजा चुनकर हिरणगर्भ अनुष्ठान करके उन पर गण-व्यवस्था लागू करके उनको गणतंत्र में शामिल कर लेता था।

 हिरणगर्भ अनुष्ठान में एक स्वर्ण मटके में राजा को बिठाकर गणतंत्र का हिस्सा बनना और अपने गण में गणतांत्रिक व्यवस्था का पालन  करने की शपथ दिलवाई जाती। शपथ लेकर राजा स्वर्णकलश से बाहर निकलता और उसी क्षण जीता गया राज्य गणतंत्र मे शामिल हो जाता और गणव्यवस्था जीते गए राष्ट्र पर लागू हो जाती।


     जिस तरह गणतंत्र में कबीले या रक्तसंबंध से बाहर का शासक नहीं हो सकता था उसी तरह जीते गए कबीलों पर भी समान कानून लागू होता था।  जीते गए कबीलों में चुनाव कराकर उन्हीं के बीच से नए राजा के चुनाव का प्रावधान था । उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वान 'ब्राह्मण' कहलाते थे। उन्हें नए राष्ट्र के गणतांत्रिक तरीकों को सिखाने व लागू करवाने में मदद करने के लिए रखा जाता। जिसके फलस्वरूप दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को वो वह स्वर्णकलश प्राप्त होता जिसमें राजा अनुष्ठान के समय बैठता। यही कारण था कि ऋग्वेद में जहाँ सिर्फ सात गोत्रों का गठबंधन वैदिक आर्यों में देखने को मिलता है, वहीं पहली शताब्दी के मिले ग्रंथों में 40-50 गोत्रों से अधिक के गठबंधन भी मिलते हैं।


8/3/21

New | Poetry | Three Poems | Seher Hashmi

Artwork via Wikimedia Commons




 

How To Be a Human?

How to be a human?

Is it an achievement?

An inborn talent

Embedded in titles -

Pittance from colonizer -

You have it or you don’t

No two ways to get it

 

Like sultry looks, curvy figure

Or cosmetic surgery can

Make this wonder happen

Maybe a bit of bleaching out

Sins of my ethnicity

Do up my genetic make-up

DNA structure, upping

Majority of Y chromosomes

To stand somewhere on my own

 

Because after all modern

Democracy has always been

The cure, one-stop-shop fix

For pangs, pains, fears

Topsy- turvy ladder of humanity

Wobbly stairs of existence

Built upon cremated honours

Lone voices of dissent

Perhaps, it’s a luxury

Relished only by those

Able to snatch away

Pounce upon preys

Holding on to power’s doorknobs

To put have-nots in their

Bracketed, aboriginal place.

 

 

 





Missing Red Dragonflies

Do red dragonflies flutter

Somewhere up high

Away from the mundane

Shrubbery of everyday life

Aloof from showy display

Of woebegone individuals

Dunking finite

Into infinite, flowing free liquor

Available for bringing in girls

To kick up their dying

Manhood marked by baldness and

Bulging jackets full of well-meaning advice

Very ‘anti-sexist’

‘Pro-feminist’

Club of privilege

Strutting around to initiate

Important discussions

Debating conflicts that

Choke heart, wreck lives

Ruin cities, wring souls of victims

With a clink of French chalice

Inhaling effervescent fumes trailed

Off cigars to puff out crisis

Against ruddy cheeks

Of teenage companions

Viewed from behind branded

Spectacles to visualize funds

For poverty alleviation

Climate change

Gender discrimination

And such other stuff

To stay abreast with what

They now call the zeitgeist?

 

 

 

 

Eclipsed

Last night

I shut myself inwards

Kept children inside

They say, ‘it’s ill omen’

Portentous enough to

Let loose all buried demons

And I’m old fashioned, born with

Perennial worry genetically induced-

A hand-me-down of colonial experience-

For my children, just a mother

Explains itself

If you get to live just

You vs tyranny of

Systemic oppression

Modelled

Programmed to

Filter us out

With an airbrush ruffle

Refined tapered off machete

Gilded, etched with subtle

Serpentine patterns

Thanks to Silicon Valley oracles

An undetectable shove

Like detached wave from a blue blood

Aristocratic swing of willowy wrist

Adorning bracelets

Gold; gleaned, collected, pitted

Upon cracked heels

Stitches, sweat, blood

Of nameless millions

So, what else I’m left to do

But

To take my kids indoor

Push them into some poorly

Hideout covered with

Persian rug, threadbare

Few chipped cups, a rusted samovar

And wait with heart pounding

In my ears, palms, jaws

Bite my own nails till

Sheer pain, palpable

Pours out blunting fears

Desperate vigil of Kashmiri mothers

Antigone marooned to fend for

Her trapped brother

Until… they come marching in

And eventually,

Despite all this

Hunt them down.